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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४११ ॥ कोईही कालविर्षे व्यय कहिये नाशस्वरूप न होय हैं, तातें नित्य हैं । नित्यका लक्षण आगें सूत्रमें | तद्भावाव्ययं नित्यं ऐसें कहसी । बहुरि ये द्रव्य एते हैं ऐसी संख्याकू नाहीं छोडे हैं, तातें अवस्थित
कहें धर्मादिक छह द्रव्य हैं ऐसी संख्याकं नाहीं उल्लंघे हैं। इहांभी सामान्यावशेषलक्षणरूप द्रव्यार्थिकनय लगावणी । बहुरि जिनकै रूप विद्यमान नाही, ते अरूपी कहिये। इहां रूपका निषेधतें ताके सहचारी जे रस गंध स्पर्श तिनका निषेध जानना तातै ए द्रव्य अरूपी कहिये अमूर्तिक हैं। - इहां प्रश्न-जो, नित्य अरु अवस्थित इन शब्दनिका अर्थका विशेष न जान्या। तहां कहिये हैं- जो, द्रव्यविर्षे अनेक धर्म हैं सो द्रव्यपणाकरि सदा विद्यमान हैं, तातें यह तो नित्यशदका अर्थ है। बहुरि द्रव्यविर्षे विशेषलक्षण है, ताकू कबहू छोडे नाही । चेतनतें अचेतन होय नाही, अमूर्तिकतें मूर्तिक होय नाही, तातें द्रव्यनिका संख्याकी व्यवस्था है, यह व्यवस्थितका अर्थ है । इस सूत्र” जे अन्यमती वस्तुकू एकान्तकरि क्षणिकही माने है तथा सत्तामात्र एकही वस्तु माने हैं, तिनका निराकरण भया । बहुरि कोई अन्यमती कहै हैं, जो, द्रव्य सर्वगत होय सो अम्र्तिक कहिये, ताका निराकरण है । जाते मूर्तिकका लक्षण रूपादिक जामें पाईये सो है। सो ऐसा मूर्तिकपणा जाम न होय सो अमूर्तिक है, ऐसा जानना ॥
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