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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४१५ ॥
नाहीं वगे । जल आदि क्रियावान् हैं । तेही मत्स्य आदिकूं गति आदिके निमित्त देखिये हैं । ताका समाधान, जो, यहू दोष इहां नाहीं है । ए धर्म आदि द्रव्य जीवपुद्गलकूं गति आदिके निमित्त हैं, ते बलाधान निमित्त हैं । जैसैं नेत्र पुरुषके रूप देखनेविषै निमित्त हैं । जो पुरुषका चित्त अन्यपदार्थोंमें लगि रह्या होय, तौ रूपकूं न देखें । जब पुरुषका चित्त तिस रूप देखने की तरफ आवै तब नेत्रभी निमित्त होय हैं । तैसें इहां भी है । जब जीवपुद्गल गमन करे तब धर्मद्रव्य निमित्त है । जब बैठे तव अधर्मद्रव्य निमित्त है । जब अवगाहै तब आकाश निमित्त है । प्रेरकनिमित्त नाहीं है । बहुरि सूत्रमें चशब्द है, सो पहले सूत्रमें कहे तिन तीनिही द्रव्यके संबंध के अर्थ है । जीवपुद्गल क्रियावान हैं |
हां कोई अन्यमती कहै है, जो आत्मा सर्वगत है, यातें क्रियारहित है । क्रियाके कारण जे संयोग प्रयत्न गुण तिनका समवायतें परविषै क्रियाका कारण है । ताकूं कहिये, जो, द्रव्य परके क्रियाका कारण होय, सो आपभी क्रियावानही होय है । जैसें पवन आप चलै है, सोही परकूं चलावे है | तैसें आत्माभी क्रियाकी शक्तियुक्त है । जब वीर्यांतराय ज्ञानावरण कर्मका क्षय क्षयोपशम अंगोपांग विहायोगति नामकर्मका उदययुक्त होय, तब शक्ति प्रगट होय गमनक्रियारूप प्रवर्ते
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