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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४१७ ।। | ख्यात गणनामानके तीनि भेद हैं , जघन्य मध्यम उत्कृष्ट । तिनमें इहां मध्यका असंख्यात लेना। बहुरि जितने आकाशक्षेत्रकू अविभागी पुद्गलपरमाणु रोक, तितने आकाशकू एक प्रदेश कहिये । तहां धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य एकजीवद्रव्य ए तीनि द्रव्य बराबरी असंख्यातप्रदेशी हैं। तहां धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य ए दोऊ तो क्रियारहित सर्वलोकाकाशमें व्यापि तिष्ठे हैं। बहुरि जीव है सो तिनकी बराबरी है । तौऊ संकोचविस्तारस्वभाव है । सो कर्मकरि रच्या शरीर छोटा तथा बडा पावै, तिसप्र. माण होय तिष्ठे है । बहुरि जब केवलसमुद्धातकरि लोकपूरण होय है, तब मेरुकै नीचें चित्रापृथिवीका वज्रमयी पटलकै मध्य जीवका मध्यका आठ प्रदेश निश्चल तिष्ठे है। बहुरि अन्य प्रदेश ऊर्द्ध अध तिर्यक समस्तलोकमें व्याप है ॥ आगें पूछे है, आकाशके केते प्रदेश हैं? ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं
॥ आकाशस्यानन्ताः॥९॥ याका अर्थ- आकाशद्रव्यके अनंत प्रदेश हैं । जाका अन्त न होय ता· अनंत कहिये । | ऐसे गणनामानकरि आकाशके अनंत प्रदेश हैं । इहां प्रश्न, जो, अनंतके प्रमाणकू सर्वज्ञ जाने है, . कि नाही? जो जान्या है, तो अनंत कैसें कहिये ? बहुरि न जान्या है, तो सर्वज्ञ कैसें कहिये ? |
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