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।। सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ४१३ ॥ एकशब्द है सो द्रव्यका विशेषण है, तातें एकद्रव्य है ऐसा कहिये । इहां तर्क, जो, ऐसा है तो द्रव्यशब्दकै बहुवचन अयुक्त है। ताका समाधान, जो, धर्म अधर्म आकाश ए तीनि हैं ताकी अपेक्षा बहुवचन है। एकशब्दकै अनेक अर्थकी प्रतीति उपजावनेकी सामर्थ्य है। इहां फेरि तर्क करै हैं, जो, एकएक ऐसा शब्द क्यों न कह्या? तातें सूत्रमें अक्षर थोरे आवते अर द्रव्यका ग्रहण अनर्थक होता । ताका समाधान, इहां द्रव्यकी अपेक्षा एकत्व कहना हैं, तातै द्रव्यका ग्रहण है । क्षेत्रभावकी अपेक्षा असंख्यात अनंत भेद हैं, तातें जीवपुद्गलकीज्यों इन तीनूं द्रव्यनिकै बहुपणा नाही है । ऐसा अर्थ सूत्रकरि प्रसिद्ध होय है । आगें अधिकाररूप कीये जे धर्म अधर्म आकाश ए तीनूं द्रव्य, तिनका विशेष जाननेकू सूत्र कहें हैं
॥निष्क्रियाणि च ॥७॥ याका अर्थ- ए तीनूं द्रव्य क्रियासूं रहित है । बाह्याभ्यंतर इन दोऊ निमित्तके वश” द्रव्यके | क्षेत्रतें अन्यक्षेत्रमें गमन करनेका कारण उपज्या जो अवस्थाविशेषरूप पर्याय, सो क्रिया है। इहां
दोऊ निमित्त कहे। तहां अभ्यंतर तो क्रियापरिणाम शक्तिकरि युक्त होय है, बाह्य परद्रव्यकी प्रेरणा । तथा भिडना आदि होय ते दोऊ निमित्त हैं । सो निमित्त कहने” द्रव्यका स्वभावका निषेध है ।
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