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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४१० ॥
जलतें पृथिवी होय है, अमितें पृथिवी होय है, पृथिवीकाष्ठादिकतें अभि होय है, ऐसें परस्पर जातिका संकर देखिये है । तातें वायुमनके न्यारेही परमाणु नाही, सर्व पुद्गलद्रव्य के विकार हैं । बहुरि दिशाका आकाशविषै अन्तर्भाव है। सूर्यके उदयादिककी अपेक्षा आकाशप्रदेशनिविषै पूर्वादिकका व्यवहार है । इहां बौद्धमती कहै है, जो, चैतन्य क्षणिक है, ताका संतान कल्पित है, ता जीव कहिये है । बहुरि चार्वाकमती कहै है, पृथिवी आदिके समुदायतें चैतन्य उपजै है, ताकूं जीव कहिये है, इत्यादि कल्पना करे हैं । तिनका निराकरण जीवद्रव्य कहनेतें भया । जातें द्रव्य है सो गुणपर्यायसहित है। तहां सततैं अन्वयरूप गुण है, व्यतिरेकरूप पर्याय है, दोऊसहित द्रव्य है, ऐसें जानना ॥
आगे द्रव्य कहे तिनका विशेष जाननेकूं सूत्र कहैं हैंहैं— ॥ नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥ ४ ॥
याका अर्थ- कहे जे द्रव्य ते नित्य हैं, अवस्थित हैं, अरूपी हैं । इहां नित्य तौ ध्रुवकूं कहिये । जातैं नि ऐसा धातुका ध्रुव अर्थविषे नित्यशब्द निपजाया है । ए धर्मादिक द्रव्य हैं ते गतिहेतुत्व आदि विशेषलक्षणतें तथा अस्तित्व आदि सामान्यलक्षण द्रव्यार्थिकनयके आदेशकरि
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