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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ४०१ ॥ | त्वके प्रयोजनकू रोके नाहीं । इन दोऊनिका प्रयोजन जुदाजुदा है । तातें इनके वचनमात्र विरोध है सो विरोध• नाहीं साधै है, ऐसें जानना ॥
ऐसें चौथे अध्यायविर्षे च्यारि निकायरूप देवनिका स्थानके भेद, मुखादिक, जघन्य उत्कृष्ट स्थिति, लेश्यादिक निरूपण किये ॥
छप्पय ॥ देव च्यारि परकार भेदयुत भाषे स्वामी। तिनके वीस निवास अधो मध्य ऊरध नामी ॥ तिन दुति सुख पर अपर आयु परभाव अवधि फुनि। लेश्या भाव विच्यारि आदि नीकै आगम सुनि ॥ अध्याय तुरिय इम उच्चन्यो जानि जिनेश्वर सेवकू । सरधो भलैं तजि मिथ्यात्वकुटेवकू ॥१॥ ऐसे तत्त्वार्थका है अधिगम जातें ऐसा जो मोक्षशास्त्र ताविर्षे
चतुर्थ अध्याय पूर्ण भया ।
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