________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३९९ ॥ अनेकरूप है, वचनकरि अनेकरूप कहिये है ज्ञानकरि अनेकरूप जानिये है, बहुरि अनेकशक्ति करि सहित है । जातें द्रव्य क्षेत्र काल भावके निमित्तौं अनेक अवस्थारूप होय है, सो वहु शक्तिरूप है तो होय हैं । ऐसें भी एकअनेकरूप है । बहुरि अन्यवस्तुके संबंधतेंभी अनेकरूप है। जैसे कर्मके संबंधते जीवस्थान गुणस्थान मार्गणास्थानरूप होय है, तैसें अन्यकी अपेक्षाकरि व्यक्त भये भाव तिनका घटनावधनाकरि अनेकरूप है । तथा अतीत अनागत वर्तमान कालके संबंधतें अनेकप्रकार हैं। तथा उत्पादव्ययपणाकरि अनेकरूप हैं।
बहुरि अन्वयव्यतिरेकपणाकरि अनेकप्रकार है। तहां अन्वय तौ गुणके आश्रय कहिये, व्यतिरेक पर्यायके आश्रय कहिये । ऐसें एक अनेकस्वरूप जीव नामा पदार्थ है सो शब्दकरि जाकू कहिये तहां सकलादेश विकलादेशकार दोय प्रकारकरि कह्या जाय है। तहां सकलादेश तौ प्रमाण कहिये, विकलादेश नय कहिये । तहां काल आदि आठ भाव पूर्व प्रथम अध्यायमें कहे हैं, तिनि
करि अभेदवृत्ति अभेदउपचार तथा भेदवृति भेदोपचारकरि द्रव्यार्थिकके पर्यायार्थिकके प्रधान| गौणपणाकरि कहिये है। ताके सात भंग अस्तिनास्ति आदि कहे ते पहले अध्यायमें उदाहरण | सहित कहे हैं, तहांतें जानने ।।
For Private and Personal Use Only