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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय
॥ पान ३९८ ॥
भावरूप पदार्थ है, सो अनेकरूप है । जातैं भाव है सो अभाव विलक्षण है । अभाव तौ सदा एकरूप है । यातें भाव अनेकरूपही होय, ऐसा न मानियै तौ भाव अभाव में विशेष न ठहरे । सो ऐसा भाव छह प्रकारका है । जन्म | अस्तित्व । निवृत्ति । वृद्धि । अपक्षय | विनाश । तहां बाह्याभ्यंतर कारणके वशर्तें वस्तु उपजै सो जन्म है । जैसें सुवर्ण कडापनाकरि उपज्या । तथा मनुष्यगतिनामकर्मका उदयकरि जीव मनुष्य भया बहुरि अपने निमित्तके वश वस्तुका अवस्था
सो अस्तित्व है । सो ऐसा अस्तित्व है सो शब्दकें तथा ज्ञानके गोचर है । ऐसें मनुष्यआदि आयुकर्म के उदयकरि जीव मनुष्य आदि पर्यायविषै अस्तित्वरूप रहे । बहुरि सत अवस्थातरकी प्राप्तिकं निवृत्ति कहिये याकूं परिणाम भी कहिये । बहुरि पहले स्वभावतें अनुकमतें वधै ताकूं वृद्धि कहिये | बहुरि पहले स्वभावतें अनुक्रमतें घंटे ताकूं अपक्षय कहिये । बहुरि पर्यायसामान्यका अभाव होय ताकूं विनाश कहिये । ऐसें भाव है सोही अनेकरूप क्षणक्षण में होय है । सो सर्वथा अभावको ऐसें मानियें तौ सिद्धि होय नाहीं । बहुरि सर्वथा सत्कं नित्यही मानियें तौ प्रत्यक्ष जन्मआदि होय हैं, तिनका विरोध आवै । इत्यादि युक्ति में सर्वथा एकान्तपक्ष सर्वही बाधित है ऐसेंही अनेकवचन तथा अनेक ज्ञानका विषयपणांतें भी भावरूप जीव नामा पदार्थ एकही
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