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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३९६ ॥
-आगें ज्योतिषीनिकी जघन्यस्थिति कहा है? ऐसें पूछे सूत्र कहैं हैं॥ तदष्टभागोऽपरा ॥ ४१ ॥
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याका अर्थ - तिस पल्यके आठवे भाग ज्योतिषी देवनिकी जवन्य स्थिति है । इहां अधिक कही विशेष लिखिये हैं । उत्कृष्टस्थितिकामें अधिक कही सो उत्कृष्टस्थितिमें केती अधिक है सो कहिये हैं । तहां चन्द्रमाकी तो एक लाख वर्ष अधिक है । सूर्यकी एक हजार वर्ष अधिक है । शुक्रकी एकसौ वर्ष अधिक है । बृहस्पति की एक पल्यकी है, अधिक नाही । अन्य ग्रहनिकी आध पकी उत्कृष्ट आयु है । नक्षत्रनिकी आध पल्यकी उत्कृष्ट आयु है । तारानिकी पल्यका चौथा भाग आयु है । बहुरि जघन्य चन्द्रमा सूर्य आदिकी तौ पल्यका चौथा भाग है । बहुरि तारानिकी अर नक्षत्रनिकी पल्यका आठवा भाग है । बहुरि कोई पूछे है, लौकान्तिक कहे तिनकी स्थिति न कही सो तो केती है ? तहां कहिये है
॥ लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम् ॥ ४२ ॥
याका अर्थ -- जो लौकान्तिक देवनिकी सर्वहीकी आठ सागरकी स्थिति है । ते सर्वही बराबर है, सर्वके शुक्ललेश्या है, पांच हाथका सर्वका शरीर है । इहां कोई तर्क करे है, जो, प्राणीकी
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