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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ४००॥ इहाँ कोई वादी तर्क करै है, जो, वस्तु एकभी कहिये अनेकभी कहिये । ऐसें तो विरोध नामा दूषण आवै है। ताका समाधान, जो, विरोध तीनिप्रकार है। वध्यघातकस्वभावरूप महानवस्थानरूप प्रतिवंध्यप्रतिबंधकस्वरूप । तहां न्यौलाकें सर्पके, जलकें अमिकै तो वध्यघातकस्वभावरूप विरोध है । सो तौ एककाल विद्यमान होय अरु तिनका संयोग होय तब होय । सो जो बलवान होय सो दूसरे निर्बलकू वांधे। सो इहां अस्तिनास्ति एक वस्तुविर्षे समानबल है। सो वध्यघातकविरोध समानबलके नाही संभवै । बहुरि सहानवस्थानलक्षण विरोध आम्रके फलक हरितभाव पीतभावके है । दोऊ वर्ण साथि होय नाही । सो यहू विरोधभी अस्तित्वनास्तित्व एकवस्तुमें एकही काल है । तातें संभवै नाही । जो भिन्नकाल होय तो जिस काल जीववस्तुविर्षे अस्तित्व होय तिसकाल नास्तित्व न होय तौ सर्व वस्तु जीवखरूप एक ठहरै । बहुरि नास्तिकै काल अस्तित्व न मानिये तो बंध मोक्ष आदिका व्यवहार न ठरहै । तातें सहानवस्थानलक्षण विरोधभी नाही संभवै । बहुरि प्रतिबंध्यप्रतिबंधकरूप विरोध फलके अरु वीटके है। जेतें संयोग है जेतें फल भाखा होय सोभी पडै नाही । जाते वीट फलका प्रतिबंधक है, फलफू पडनें दे नाही । सो ऐसा विरोधभी | अस्तित्व नास्तित्वकै नाही है । अस्तित्व तौ नास्तित्वके प्रयोजनकू रोकै नाही । नास्तित्व अस्ति
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