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PREPARADHARA
అరకులసలనందరకుందువుల నరులను
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४०६ ॥ __याका अर्थ-धर्म अधर्म आकाश पुद्गल ए अजीवकाय कहे, तिनकों द्रव्यभी कहिये । यातें द्रव्य हैं। तहां जे.अपना जैसा स्वरूप है, ताकरि पर्यायनिकू द्रवंति कहिये प्राप्त होय तथा ते पर्याय जिनकू प्राप्त होय ते द्रव्य हैं । इहां अन्यवादी कहै है, जो, द्रव्यपणाका योग कहिये संबंध ताकरि द्रव्य है, सो यह बनें नाही । ऐसें कहे द्रव्यत्वकी तथा द्रव्यकी दोऊहीकी सिद्धि न होय है। जैसे दण्ड अरु पुरुष दोऊ न्यारे सिद्ध हैं, तब तिनका संयोग होय तब दण्डी पुरुष कहावै। तैसें द्रव्यत्व अरु द्रव्य न्यारेन्योर दीखते नाही तातें द्रव्यत्वके योगते द्रव्य सिद्ध होय। जो, न्यारेन्यारे सिद्ध भये विनाभी संबंध कहिये तो आकाशफूल असिद्ध है ताके अर आकाशकभी संबंध ठहरै । तथा स्वभावकरि तौ पुरुष मस्तगसहित हैही, ताकू दूजे मस्तकका संबंध ठहरे । ऐसेंही द्रव्य तौ द्रव्यत्वरूप हैंही कै दूजा द्रव्यत्वका संबंध ठहरे अथवा आकाशके फूलक अरु कल्पितपुरुषके मस्तककैंभी योग होय, सो होय नाहीं॥
अथवा द्रव्य अरु द्रव्यत्व न्यारे न्यारेही मानिये तो द्रव्य तौ न्यारा ठहराही । ताकें द्रव्यत्वका योग है, तातें द्रव्य है, ऐसी कल्पना निष्प्रयोजन है । बहुरि कोई कहै, गुणनिका सद्भाव कहिये समुदाय है सो द्रव्य है सो ऐसेंभी जो गुणनिके अरु समुदायके कथंचित् भेद मानिये तो द्रव्यका
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