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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ४०५ ॥ देखि अवस्तु बतावै तौ जीवभी अनित्यही दीख । सोभी अवस्तु ठहस्खा तब सर्वका लोप भया ।
इहां अदृष्टकी कल्पनाकरि एक ब्रह्म बतावै तौ जीवपदार्थविना ताळू देखैगा कौंन ? देखने- | वाला जो अवस्तु है, तो अवस्तुका देख्या सत्य कैसे ? बहुरि ताळू आगमके कहेमात्रही मानें, तो आगमभी अवस्तु, आगमका माननेवालाभी अवस्तु । तब अदृष्टकल्पनाही भई । इत्यादि युक्ति” | पुरुषका द्वैतकी सिद्धि नाही है । बहुरि पृथ्वी अप तेज वायु मन दिशा काल आकाश ऐसे अजीव पदार्थके भेद नैयायिक वैशेषिक मानें हैं। तेभी प्रमाणबाधित हैं। जाते पृथ्वी अप तेज वायु मन ए तौ पुद्गलद्रव्यही हैं । जुदी जाति नाही । भेदसंघातकरि स्कंधरूप मिलै खुलै है । बहुरि दिशा है सो आकाशहीका भेद है जुदा द्रव्य नाही । आकाशके प्रदेशनिकी पंक्तिविर्षे सूर्यके उदयादिके वशतें पूर्व आदि दिशा कहिये है । बहुरि बौद्धमती एकरूप स्कंधमात्र अजीव मानें हैं। सो स्कंध तो पुद्गलद्रव्यमयीही है । बहुरि इहां धर्मादिक जुदे द्रव्य कहे, तिनका समर्थन आगे होयगा ॥
आगें पूछे है कि, सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य इत्यादिसूत्रविर्षे द्रव्य कहे, ते कौन हैं ? ऐसें पूछ सूत्र कहै हैं
॥ द्रव्याणि ॥२॥
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