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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ तृतीय अध्याय ॥ पान ३४१ ॥ | नका है । बहुरि पर्वतनिके अंतके द्वीप वेदीते छहसै योजन पर है । तिनिका विस्तार पचीस पचीस योजनका है । तहां मनुष्य कैसे हैं ? पूर्वदिशाके दीपके वासी तौ एकजांघवाले हैं । पश्चिमके पूछवाले हैं । उत्तरदिशाके गुंगे हैं । दक्षिणदिशाके सींगवाले हैं । बहुरि च्यारि विदिशानिके क्रमतें सुस्साकेसे कांन, सांकलीकेसे कान, काननिको ओढि ले ऐसे बड़े कान , लांबेकांन ऐसे हैं । बहुरि अंतरालनिके क्रमते घोडामुखा, सिंहमुखा, भैसामुखा, सूकरमुखा, वघेरामुखा, उलूकमुखा, काकमुखा, बांदरमुखा ऐसे हैं । बहुरि शिखरी कुलाचलके दोऊ अंतनिके मेघमुख बीजलीमुख हैं। बहुरि हिमवान् कुलाचलके दोऊ अंतके दीपनिके मच्छमुख कालमुख हैं । बहुरि उत्तर विजयाद्धके दोऊ अंतनिके हास्तमुख आदर्शमुख हैं । बहुरि दक्षिणविजयार्द्धके दोऊ अंतनिके गोमुख मेषमुख हैं । बहुरि एकजांघवाले तो मांटीका तो आहार करै हैं । गुफानिविर्षे वसै हैं । बहुरि अवशेष सारेही पुष्पफलनिका तो आहार करै हैं । अरु वृक्षनिवि वसै हैं । इनि सर्वहीकी एकपल्यकी आयु है । बहुरि ए चोईसही दीप जलके तलते एक एक योजन ऊंचे हैं । ऐसेही कालोदसमुद्रविर्षे जाननै । ऐसै ए अंतरद्वीपके म्लेच्छ कहे । बहुरि कर्मभूमिनिके म्लेच्छ शक यवन शबर पुलिंद इनिकू आदि दे अनेकजाति हैं ।
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