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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । तृतीय अध्याय ॥ पान ३५१ ॥ समूहरूप परिमाणविषै घटाइये । पीछे ज्योंका त्यों मिलाइये तव केवलज्ञानका अविभागप्रतिच्छे दनिका प्रमाणस्वरूप उत्कृष्ट अनंतानंत होइ । इहां केवलज्ञानके परिमाणमैसौं काढि पीछे मिलावका प्रयोजन यह है जो केवलज्ञानका परिमाण पूर्वोक्त गणनादिकरि जान्यां न जाय तातें ऐसें जनाया है । ऐसें संख्यामान के इकईस भेद कहे । बहुरि याके विशेष कहनेकूं सर्व समविषम आदि के चौदह धारा हैं तिनका वर्णन त्रिलोकसार ग्रंथतें जाननां ।
बहुर उपमाप्रमाण आठ प्रकार है । पल्य सागर सूच्यंगुल प्रतरांगुल घनांगुल जगच्छ्रेणी जगत्प्रतर जगद्वन । तहां प्रथम तों योजनका प्रमाणकी उत्पत्ति कहिये है । तहां आदि मध्य अंतकरि रहित ऐसा दूसरा जाका विभाग न होय ऐसा अविभागी पुद्गलका परमाणू है सो इंद्रियकरि न जाय । जा एक रस, एक वर्ण, एक गंध, दोय स्पर्श ए पांच गुण हैं । अनंतानंत
परमाणूका समूहकूं उत्संज्ञासंज्ञ कहिये । ऐसे उत्संज्ञासंज्ञ आठ मिलै तब एक संज्ञासंज्ञ कहिये | ऐसे आठ संज्ञासंज्ञ मिलै तब एक तुटिरेणु कहिये । आठ तुटिरेणुका एकत्रसरेणु कहिये । आठ चसरेणुका एक रथरेणु कहिये । आठ रथरेणुका एक उत्तमभोगभूमीके मनुष्यका बालका अग्रभाग है । आठ उत्तमभोगभूमीके मनुष्यका वालके अग्रभाग मिलै तब एक मध्य
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