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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३८९ ॥
॥ औपपादिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः ॥२७॥ याका अर्थ- औपपादिक देव नारकी और मनुष्य इनसिवाय बाकी रहे ते तिर्यग्योनि कहिये तिर्यंच हैं । औपपादिक तौ देवनारकी पूर्वे कहेही थे। बहुरि मनुष्य प्राङ्मानुषोत्तरान्मनष्याः इस सूत्रविर्षे कहे, इनतें अन्य संसारी जीव बाकी रहे ते तिर्यंच जानने । बहुरि इन तिर्यंचनिका देवादिककीज्यों क्षेत्रविभाग कह्या चाहिये, परंतु ये तिर्यंचजीव सर्वलोकव्यापी हैं। तातें इनका क्षेत्रविभाग न कह्या । इहाँ प्रश्न- तिर्यंचनिकू यहां कहे, इनका प्रकरण दूसरे अध्यायमें था, तहां क्यों न कहा? ताका उत्तर, जो, तियेच सर्वलोकव्यापी हैं, तातें इनके प्रकरणमें कहते तो तिर्यंचनिके भेद बहुत, ते सर्व कहने होते, तब सूत्रका गौरव होता वधि जाता । तातें देव नारकी मनुष्य आधारसहित कह चुके । पीछे अवशेष रहे ते सर्व तिर्यंच सर्वलोकव्यापी हैं। याते सूत्रका गौरव न भया। तहां तिर्यंच दोय प्रकार सूक्ष्मवादर भेदकरि हैं। तहां सूक्ष्म तो एकेन्द्रिय हैं, ते सर्वलोकव्यापी हैं । बहुरि बादर एकेन्द्रिय विकलत्रय पंचेन्द्रिय हैं, ते सर्वत्र नाही, कहूं कहूं हैं ॥
आगें, नारकी मनुष्य तिर्यंचनिकी तौ स्थिति कही, बहुरि देवनिकी न कही, सो कही चाहिये। तहां आदिवि भवनवासी कहे, तिनकी स्थिति कहने के अर्थि सूत्र कहै हैं
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