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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३९० ॥ ॥ स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्योपमाईहीनमिताः ॥ २८ ॥ ___याका अर्थ- असुर आदिके सागरोपम आदिकरि यथाक्रम संबंध करना, या स्थिति उत्कृष्ट है, जघन्य आगै कहसी। तहां असुरकुमारनिकी स्थिति कहिये आयु सो एकसागरकी है। बहुरि नागकुमारनिकी आयु तीनि पल्यकी है । अवशेष देव रहे तिनके सुपर्णकुमार द्वीपकुमार अर बाकी रहे ते ऐसें तीनि स्थानकविर्षे आधा आधा पल्य घाटि जानना । तहां सुपर्णकुमारकेकी तौ अढाई पल्यकी, द्वीपकुमारकेकी दोय पल्यकी, बाकी रहे छह कुमार तिनकी डेढ पल्यकी है ॥
आगें, इनके आगे व्यंतरज्योतिष्कनिकी स्थिति अनुक्रममें आई ताहि उलंध्य वैमानिक देवनिकी स्थिति कहिये हैं। जातें आगें लघुकरणकरि तिन व्यंतरज्योतिषीनिकी स्थिति कही जायगी । अव वैमानिकविर्षे आदिका दोय स्वर्गविर्षे स्थिति कहै हैं
॥सौधर्मेशानयोः सागरोपमेऽधिके ॥ २९॥ याका अर्थ- सौधर्म ऐशान स्वर्गविर्षे दोय सागर क्यों (कुछ ) अधिक स्थिति है । इहाँ । | सूत्रमें सागरोपमे ऐसा द्विवचन है, तातें दोय सागर लेने । बहुरि अधिक ऐसा शब्द अधिकार| स्वरूप है सो सहस्रारस्वर्गताई लीजियेगा। तातें आगें सूत्रमें तु शद है। तातें ऐसा जाना जाय
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