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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३९१ ॥ है । तातें इहां ऐसा अर्थ भया, सो, सौधर्म ऐशान इन दोय स्वर्गके देवनिकी आयु दोय सागर कुछ अधिक है । आगै, अगिले स्वर्गनिविर्षे स्थितीके जाननेकू सूत्र कहै हैं
॥सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त ॥३०॥ याका अर्थ- सानत्कुमार माहेन्द्र इन दोय स्वर्गनिविर्षे सात सागर अधिक सहित है ।। आगे ब्रह्मलोकादिकतें लगाय अव्युत स्वर्गपर्यंत स्थितीके जाननेक्रू सत्र कहै हैं
॥त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपंचदशभिरधिकानि तु ॥ ३१॥ याका अर्थ- यहां पहले सूत्रमें सातसागर कहे हैं । तिनमें इस सूत्रमें कहे जे तीनि आदि ते अधिक करने जोडने । बहरि पूर्वसत्रके अधिक शब्दकी अनुवृत्ति है। सो इस सूत्रमें शब्दकरि इहां च्यारि युगलनिताई तो अधिक लेना, और अंतके दोय युगलमें न लेना, ऐसा अर्थ तु शब्दकरि भया । तातें इहां ऐसा अर्थ है, ब्रम्हलोक ब्रह्मोत्तरविर्षे तौ सातमें तीनि मिले तब दश सागरकी स्थिति अधिक सहित भई । लांतव कापिष्ठविर्षे सातमें सात मिले तब चौदह सागर अधिक
सहित हैं । शुक्र महाशुक्रविर्षे सातमें नव मिले तब सोलह सागर साधिक हैं । शतार सहस्रारविर्षे | सातमें ग्यारह मिले तब अठारह सागर साधिक है । आनत प्राणतविर्षे सातमें वीस मिले तब वीस
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