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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३९३ ॥ आगें जिन देवनिकी उत्कृष्ट स्थिति कही तिनके जघन्यस्थिति कहनेकों सूत्र कहें हैं
॥ अपरा पल्योपममधिकम् ॥ ३३॥ याका अर्थ-- अपरा कहिये जघन्यस्थिति सौधर्म ऐशानके देवनिकी कल अधिक एक पल्यकी है । यह सूत्रतें कैसें जानिये ? अगिले सूत्रमें 'परतः परतः' ऐसा कहा है तातें इहां सौधर्म ऐशान जाना जाय है । आगें याके उपरि जघन्यस्थिति कहनेईं सूत्र कहैं हैं
॥परतः परतः पूर्वापूर्वानन्तराः ॥ ३४॥ __याका अर्थ- इहां परतः परतः ऐसा तो सप्तमी विभक्तिका अर्थ है । बहुरि वारवार कहने तातें दोयवार कया है । बहुरि पूर्वशब्दके अधिक ग्रहणकी अनुवृत्ति है ताने ऐसा अर्थ भया, जो, सौधर्म ऐशानविर्षे उत्कृष्ट स्थिति साधिक दोय सागरकी कही । सो यातै परे सानत्कुमार माहेन्द्रविर्षे जघन्यस्थिति साधिक दोय सागरकी है । बहुरि सानत्कुमार माहेन्द्रविर्षे उत्कृष्ट स्थिति साधिक सात सागरकी है। सोही ब्रह्म ब्रह्मोत्तरविर्षे जघन्यस्थिति है। ऐसेंही विजयादिकपर्यंत जाननी । अनन्तरशद है सो पहली पहली लगतीकू जनावे है। आगे नारकीनिकी उत्कृष्टस्थिति तो यह पहली कही थी, बहुरि जघन्य पहली न कही, बहुरि इहां ताका प्रकरणभी नाही, तौभी
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