________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय । पान ३८८ ॥
॥ विजयादिषु विचरमाः॥२६॥ याका अर्थ-विजयादिक च्यारि विमानवाले तथा अनुदिशवाले देव दोय भव मनुष्यका लेय मोक्ष जाय हैं। यहां आदिशब्द प्रकारार्थमें है । तातें विजय वैजयंत जयंत अपराजित अनुदिश विमान तिष्ठे हैं तिनका ग्रहण है, जातें इनवि सम्यग्दृष्टीविना उपजै नाहीं ऐसा प्रकारार्थ जानना। इहां कोई कहै है, ऐसे तो सर्वार्थसिद्धिकाभी ग्रहण होय है। ताकू कहिये नाही होय है। जातें सर्वार्थसिद्धिके देव परम उत्कृष्ट हैं । तातें इनकी संज्ञाही सार्थिक हैं। एक भव ले मोक्ष पावें हैं। बहुरि इस सूत्रमें चरमतपणां मनुष्यभवकी अपेक्षा है, जे दोय भव मनुष्यके ले ते दिचरम कहिये । तातें ऐसा अर्थ है, जो, विजयादिकतें चयकरि मनुष्य होंय बहुरि संयम आराधि फेरि विजयादिकविष उपजै, तहांतें चयकरि मनुष्य होय मोक्ष जाय हैं ऐसे विचरमदेहपणा है । ऐसें ग्यारह सूत्रनिकरि वैमानिक देवनिका निरूपण किया ।
आगें पूछे है, जीवके औदयिक भावनिविर्षे तिर्यग्योनि औदयिकी कही बहुरि स्थितिके निरूपणते तिर्यचनिकी स्थिति कही; तहांतें ऐसा न जाना गया, जो, तिर्यंच कौन हैं? ऐसा || पूछे सूत्र कहै हैं
For Private and Personal Use Only