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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३८७ ॥ हैं, बहुरि कामचर इकईस हजार इकईस हैं । बहुरि गर्दतोय तुषितके अंतरालमें निर्माणरज दिगंतरक्षित हैं । तहां निर्माणरजके देव तेईस हजार तेईस हैं, दिगंतरक्षित पच्चीस हजार पच्चीस हैं । बहुरि तुषित अव्यावाधके अंतरालमें आत्मरक्षित सर्वरक्षित हैं | तहां आत्मरक्षित सत्ताईस हजार सत्ताईस हैं, सर्वरक्षित उनतीस हजार उनतीस हैं। बहुरि अव्यावाध अरिष्टके अंतरालमें मरुत वसु हैं । तहां मरुतके देव इकतीस हजार इकतीस हैं, वसुके देव तेतीस हजार तेतीस हैं। बहुरि अरिष्ट सारस्वतके अंतरालमें अश्व विश्व हैं। तहां अश्वदेव पैंतीस हजार पैंतीस हैं, विश्व सैंतीस हजार सैंतीस हैं । ए सव चालीस लोकांतिक देव भेले किये चारि लाख सात हजार आठसे छह हैं। सर्वही स्वाधीन हैं। इनमें हीनाधिक कोऊ नहीं । बहुरि विषयनिका रागनितें रहित हैं। ता इनकू देवर्षिभी कहिये । याहीतें अन्यदेवनिकें ये पूज्य हैं। चौदह पूर्वके धारी हैं। तीर्थंकरनिके तपकल्याणविर्षे प्रतिबोधनेंविर्षे तत्पर हैं। निरंतर ज्ञानभावनाविर्षे जिनका मन रहै है, संसारतें सदाही विरक्त हैं, बारह अनुप्रेक्षाविर्षे जिनका चित्त प्रवर्ते है ऐसा नामकर्मकी प्रकृतिविशेषके उदयतें उपजे हैं।
आगें पूछे हैं, जो, लौकान्तिक देव कहे ते एकभव ले निर्वाण पावें हैं, तो ऐसा औरभी । देवनिकै निर्वाण पावनेका कालविभाग है? ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं
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