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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३३७॥
संदेह रहै , जो, इहां उपसर्ग है कि नाही? तातें संदेह मेंटनेके अर्थि उपसर्ग जुदा राखा है ॥
आगें ऐशानताई मर्यादा कही तातें अगिले स्वर्गनिवि सुखका विभाग जान्यां नाही, ताके | प्रतिपादनके अर्थि सूत्र कहें हैं
॥शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचाराः ॥ ८॥ याका अर्थ-शेष कहिये कहे तिनते अवशेष रहे देव तिनकै स्पर्श रूप मन इनविर्षे मैथुन है । तहां कहे तिनतें अवशेष जे कल्पवासी तिनकै आगमते अविरोधरूप संबंध करना । पहले सूत्रमें प्रवीचारका ग्रहण तौ थाही, यहां फेरि प्रवीचारका ग्रहण याहीके अर्थि है। सो
आगमसूं अविरोध स्पर्शादिमैथुन लेना। तहां सनत्कुमार माहेन्द्रस्वर्गके देव देवांगनाके स्पर्शमात्रहीकरि परमप्रीति पावै हैं । तैसेंही देवांगनाभी परमसुख पावे हैं । बहुरि ब्रह्म ब्रम्होत्तर लांतव || | कापिष्ट वर्गके देव देवांगनाके शृंगार आकार विलास चतुर मनोज्ञ वेष रूपके देखनेहीकरि परमसुखकू पावें हैं । वहुरि शुक्र महाशुक्र शतार सहस्रारविर्षे देव देवांगनाके मधुर संगीत गावना कोमल हँसना ललित बोलना आभूषणनिके शब्दका सुननामात्रहीत परमप्रतिकू पावें हैं।
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