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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३८० ॥
कहिये; बहुरि शरीर तथा वस्त्रआभरणाकी दीप्ति, सो द्युति कहिये, बहुरि कषायकरि योगनिकी प्रवृत्तिरूप लेश्या ताकी विशुद्धि कहिये उज्वलता; बहुरि इन्द्रियनिकरि विपयनिका जानना; बहुरि अवधिकार द्रव्य क्षेत्र काल भावरूप विषयका जानना इनकरि अधिक अधिक हैं ।
आगें स्थितिआदिकरि जैसें अधिक हैं, तैसें गति आदिकरि हीन हैं ऐसें कहै हैं॥ गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः ॥ २१ ॥
याका अर्थ - ए वैमानिक देव हैं ते गति शरीर परिग्रह अभिमान इनकरि उपरिउपरि हीन कहिये घटते घटते हैं | तहां क्षेत्रसे अन्य क्षेत्र जाना सो गति कहिये । शरीर तिनके वैकियक कह्या सोही । बहुरि लोभकषायके उदयतें विषयनिविषै संगति करना सो परिग्रह कहिये । बहुरि मानकषाके उदय उपजा जो अहंकार गर्व सो अभिमान कहिये । इनकरि उपरि उपरि हीन हैं । जातें अन्यदेशविषे क्रीडा रतिका अभिलाष तीव्र नाहीं । अपने योग्य क्षेत्रविषही तृप्ति है । तातें तौ गमन थोडा करे है | बहुरि शरीर सौधर्म ऐशान के देवनिका तो सात हस्तका है । बहुरि सनत्कुमार माहेन्द्रका छह हाथका है । ब्रह्मलोक ब्रह्मोत्तर लांतव कापिष्टविषै पांच हाथका है। शुक्र महाशुक्र शतार सहस्रारविषै व्यारि हाथका है। आनत प्राणतविषें साढा तीनि हाथका है । बहुरि आरण
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