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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३८४ ॥
याका अर्थ- नवग्रेवेयककें पहली पहली कल्प कहिये । यहां यह न जान्या, जो, कहांतें लगाय कल्प हैं। ताके जाननेक सोधर्मादिक शडका पूर्वसूत्रतें अनुवर्तन करना। तातें ऐसा अर्थ भया, जो, सौधर्मतें लगाय ग्रेवेयकतें पहली अच्युतस्वर्गाई कल्पसंज्ञा है। याहीतें ऐसा सिद्ध भया जो ग्रैवेयकतें लगाय अनुत्तरताई अवशेष रहे ते कल्पातीत हैं।
आगें, ऐसें पूछे है कि, लौकान्तिक देवभी वैमानिक हैं, ते कहां जानिये? बहुरि कल्पवासीनिमें कैसैं? ऐसे पूछ सूत्र कहैं हैं
॥ब्रह्मलोकालया लौकान्तिकाः ॥२४॥ याका अर्थ- ब्रह्मलोक कहिये पांचवा स्वर्ग ताविर्षे है आलय कहिये निवास जिनका ते लौकान्तिक हैं । जामैं आयकरि रहिये ताकू आलय कहिये ऐसा आवासका नाम भया । सो जिनका निवास ब्रह्मलोक जो पंचम स्वर्ग तामें हैं ते लोकान्तिक हैं। इहां प्रश्न, जो, ऐसें तो पांचमा स्वर्गके सर्वही देवता रहैं हैं, ते सर्वही लौकान्तिक ठहरे । ताका उत्तर- जो, ऐसा नाही । इनका नाम सार्थिक है । ब्रह्मलोककू तो लोक कहिये, ताका जो अंत छेहडा ताविर्षे उपजें ते लोकान्तिक कहिये । तथा जन्म जरा मरणकरि व्याप्त ऐसा जो लोक कहिये संसार ताका अंत कहिये छेहडा
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