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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३८१ ॥
अच्युतविर्षे तीनि हाथका है । अधोवेयकविर्षे अढाई हाथका है । मध्यप्रैवेयकवि दोय हाथका है। उपरिग्रैवेयकविर्षे बहुरि अनुदिशविर्षे डेढ हाथ है । बहुरि अनुत्तरविर्षे एक हाथ है । बहुरि परिग्रह विमान देवांगना आदि परिवार इत्यादिका उपरि उपरि घटता घटता है । बहुरि उपरि उपरि कषाय थोरे हैं। तातें अभिमान घटता घटता है । इहांतें स्वर्गनिमें उपजें हैं, तिनके कषायनिकी मंदता बढती बढती होय, ते उपरि उपरि उपजे हैं । तातें सोही संस्कार वहां है । तातें उपरि उपरि कषाय थोरे थोरे हैं ।
आगें, तीनि निकायनिकें तो लेश्या पहली कही थी । अब वैमानिकनिकें लेश्याकी विधिप्रतिपत्ति अर्थि सूत्र कहै हैं
॥पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु ॥ २२॥ याका अर्थ- दोय युगलनिमें पीतलेश्या, तीनि युगलनिमें पद्मलेश्या, बहुरि बाकी तीनि युगल तथा अहमिन्द्रनिकै शुक्ललेश्या है । यहां पहले पीत पद्म शुक्लका द्वंद्वसमास करि पीछे ए लेश्या जिनकें होय ते पीत पद्म शुक्ललेश्यावाले देव हैं, ऐसे बहुव्रीहिसमास है। इहां प्रश्न, जो, इहां समासविर्षे पीत पद्म शुक्ल इनके इस्व अकार कैसे भया? शब्द तौ पीता पद्मा शुक्ला ऐसा
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