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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३७४ ॥
याका अर्थ - इन ज्योतिषी देवनिकरि कीया कालका विभाग है । इहां तत्का ग्रहण गतिसहित ज्योतिष्क देवनिके कहनेके अर्थि है । सो यहू व्यवहार काल केवल गतिहीकरि तथा केवल ज्योतिषीनिकरि नाहीं जाना जाय है । गतिसहित ज्योतिषीनिकरि जाना जाय है । तातें गमन तो इनका काहूकूं दीखे नाहीं । बहुरि गमन न होय तो ये थिरही रहैं । तातें दोऊ संबंध लेना । तहां काल है सो दोयप्रकार है । व्यवहारकाल निश्चयकाल । तिनमें व्यवहारकालका विभाग इन ज्योतिषीनिकरि कीया हूवा जानिये है । सो समय आवली आदि क्रियाविशेषकरि जाना हुवा व्यवहारकाल है । सो नाही जाननेमें आवै ऐसा जो निश्चयकाल ताके जाननेकु कारण है सो निश्चयकालका लक्षण आगे कहसी, सो जानना ॥
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आ मनुष्यलोक वाहिर ज्योतिष्क अवस्थित हैं। ऐसा कहनेकूं सूत्र कहें हैं॥ बहिरवस्थिताः ॥ १५ ॥
याका अर्थ - बहिः कहिये मनुष्यलोकतैं बाहिर ते ज्योतिष्क अवस्थित कहिये गमनरहित हैं । इहां कोई कहै है, पहले सूत्रमें कया है जो मनुष्यलोकतैं ज्योतिष्कदेवनिके नित्य गमन है । सो ऐसा कहनेही तें यह जाना जाय है, जो, यातैं बाहिर के कें गमन नाहीं । फेरि यह सूत्र कहना
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