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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता || चतुर्थ अध्याय || पान ३७३ ॥
हुरिलोकका ग्रहण है, सो अढाई द्वीप दोय समुद्र में नित्यगमन है । अन्य द्वीपसमुद्रनिमें गमन नाहीं । इहां कोई तर्क करे है, ज्योतिषी देवनिका विमाननिकें गमनका कारण नाहीं । तातें गमन नाहीं । ताकूं कहिये, यह कहना अयुक्त है । जातें तिनके गमनविषे लीन ऐसें आभियोजाति देव का कीया गतिपरिणाम है । इन देवनिकें ऐसाही कर्मका विचित्र उदय है, जो गतिप्रधानरूप कर्मका उदय दे है । बहुरि मेरुतें ग्यारहसें इकईस योजन छोड ऊपरैं गमन करें हैं । सो प्रदक्षिणारूप गमन करें हैं । इन ज्योतिषीनिका अन्यमती कहै है, जो, भूगोल अल्पसा क्षेत्र है । ताके ऊपर नीचें होय गमन है । तथा कोई ऐसें कहै है, जो, ए ज्योतिषी तौ थिर हैं । अरु भूगोल भ्रमे है । तातैं लोककूं उदय अस्त दीखे है । बहुरि कहैं हैं, जो, हमारे कहनेतें ग्रहण आदि मिलै है । सो यह सर्व कहना प्रमाणबाधित है। जैनशास्त्र में इनका गमनादिकका प्ररूपण निर्वाध है । उदयअस्तका विधान सर्वतें मिले है । याका विधिनिषेधकी चर्चा श्लोकवार्तिकमैं है | तथा गमनादिकका निर्णय त्रैलोक्यसार आदि ग्रंथनिमें है, तहांतें जानना ॥
आगे इन ज्योतिषीनिके संबंधकरि व्यवहारकालका जानना है तिसके अर्थि सूत्र कहे हैं॥ तत्कृतः कालविभागः ॥ १४ ॥
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