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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३७० ॥ ॥ व्यन्तराः किन्नरकिम्पुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः ॥ ११॥
याका अर्थ- विविध देशान्तरनिविर्षे जिनिक वास ते व्यंतर हैं, ऐसी इनकी सार्थिक सामान्यसंज्ञा है । बहुरि तिनके भेदनिकी विशेषसंज्ञा किंनर किंपुरुष महोरग गंधर्व यक्ष राक्षस भूत पिशाच ऐसी है । यह विशेषसंज्ञा नामकर्मके विशेषके उदयतें भई है। बहुरि इनका आवास कहां है सो कहिये है । इस रत्नप्रभाएथिवीके पहले खरभागविर्षे अर जंबूद्वीपते असंख्यात द्वीपसमुद्र परें जाय सातप्रकारके व्यंतरनिके आवास हैं । बहुरि राक्षसजातिके निकायके दूसरे पंकबहुल भागविर्षे हैं। यहां अन्यवादी केई कहै हैं । किंनर किंपुरुष मनुष्यनकू खाय हैं । तथा पिशाच मांसका आहार करें हैं । राक्षस मांस आहारी हैं | सो यह कहना अयुक्त है । मिथ्याज्ञानतें तिनका अवर्णवाद करें हैं । जाते ये देव पवित्र वैक्रियकदेहके धारक हैं । सो अपवित्र मनुष्यनिका शरीरकू कैसे इच्छै ? तथा मांस कैसें भक्षे?
इहां कहैं, जो, लोकविर्षे व्यंतर आवै तब कहैं हैं मांस दारू ल्यावो, सो यह कहना ऐसा | है, प्रथम तो लोकमें अज्ञानी जीव वात आदि रोगविर्षे व्यंतरकी कल्पना करें हैं, वातविकारतें
यथा तथा वचन कहैं अवष्टा करै ताकू व्यंतर ठहराय लें । बहुरि कदाचित् कोई व्यंतरभी चेष्टा
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