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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ तृतीय अध्याय ॥ पान ३६० ॥ पूछिये ईश्वरके इच्छा काहेरौं भई ? तहां कहै प्राणीनिके अनुसारी इच्छा होय है । तो ऐसे होते सर्व प्राणीनिकै कर्मनिके निमित्त कार्य होना क्यों न मानिये ? ईश्वरकी कल्पना कौंन अर्थि करिये ? इत्यादियुक्तिनै जगतका ईश्वर कर्ता सिद्ध नाहीं होय है । याकी चर्चा श्लोकवार्तिकतें विशेषकरि जाननी। तातें स्याद्वादकरि अनादिनिधन नित्यानित्यात्मक स्वयंसिद्ध अकृत्रिम जगत् षद्रव्यात्मक लोक है । सो सर्वज्ञके आगमकरि प्रमाणसिद्ध जाननां । अन्यवादी अनेक कल्पना करै हैं, सो प्रमाणभूत नाहीं ऐसे निश्चय है । ऐसें तृतीयाध्यायका कथन है ।।
॥ छप्पय ॥ सातनरककी भूमि भूमिमें विल बहुतेरे । पापजीव परिणाम दुष्टलेश्या दुर करे । आयुकायदुःख भूरि भजै दुःकृतफल पूरे । कहे सकल भगवान पापहरनेकू दूरे॥ पुनि द्वीप उदधि गिरि खेत सर नदी मान नरभेद थिति । तिरिजंच आयु ये विधि कथन भाषै तीजे संधि इति ॥ १॥ ऐसें तत्त्वार्थका है अधिगम जातें ऐसा मोक्षशास्त्र ताविर्षे तीसरा अध्याय पूर्ण भया ॥
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