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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ तृतीय अध्याय ॥ पान ३४० ॥
भोजन अमृत हो जाय तथा जिनिका वचन प्राणीनिकूं अमृतकीज्यों उपकार करै सो अमृतश्रावी है । ऐसें रसऋद्धि छह प्रकार है || बहुरि आठमी क्षेत्रऋद्धि दोय प्रकार है । तहां लाभांतरायके क्षयोपशमका अतिशयवान् मुनि तिनिकूं जिस भोजनमैंसूं भोजन दे तिस भाजन में चक्रवर्तिको कटक भोजन करें तौ वै दिनि वीतै नही सो अक्षीणमहानस है । बहुरि मुनि जहां वसै तहां देव मनुष्य तिर्यंच सर्वही जो आय वसै तौ परस्पर बाधा होय नांही सकडाई न होय सो अक्षीण महालय है । ऐसें एऋद्धि जिनिकै प्राप्त होय ते ऋद्धिप्राप्त आर्य हैं ।।
बहुरि म्लेच्छ दोय प्रकार हैं अंतदीपज कर्मभूमिज । तहां अंतर्दीपज तौ लवणसमुद्रकी आठ दिशा विदिशाविषै तथा आठही तिनिके अंतरालनिविषै तथा हिमवान शिखरी कुलाचल तथा दोऊ विजयार्द्धके पूर्वपश्चिम दोऊ दिशानिके अंतविषै आठ हैं । ऐसें चौईस अंत हैं तहां वसै हैं । तहां दिशानिके द्वीप तौ जंबूदीपकी वेदीतें पांचसैं योजन परै समुद्रमैं हैं तिनका सौ सौ योजनका विस्तार है । बहुरि विदिशानिकै द्वीप वेदीनितै पांच सें योजन पर हैं । तिनिका विस्तार पचावन पचावन योजनका है । बहुरि दिशा विदिशानि के अंतराल के दीप वेदीतैं पांच पचास योजन परे हैं । तिनिका विस्तार पचास पचास योज
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