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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ तृतीय अध्याय । पान ३३८ ॥
भया है देह जिनिका तौभी अनशन कायक्लेशादि तपते छूटे नांही भयानक मसाण पर्वतके शिखर गुफा दरी कंदरा शून्यग्राम आदिवि दुष्ट यक्ष राक्षस पिशाच वेतालरूप विकार होतेभी तथा कठोर जे स्यालनिके रुदन निरंतर सिंह व्याघ्र आदि तथा दुष्ट हाथीनिके भयानक शद्ध सुननेतेभी तथा चौरादिका जहां विचरणा ऐसे भयानक प्रदेशनिवि तिष्ठे सो घोरतप है । बहुरि तेही मुनि तपका योगके वधावनेकैवि तत्पर ते घोर पराक्रम हैं । बहुरि बहुतकालतें ब्रह्मचर्यके धारक आतिशयरूप चारित्रमोहनीय कर्मका क्षयोपशमतें नष्ट भये हैं खोटे विकाररूप स्पन जिनिकै ते घोर ब्रह्मचर्यवान हैं । ऐसें सात तपोऋद्धि है ।। बहुरि पांचवा बलऋद्धि तनि प्रकार है। तहां मनःश्रुतज्ञानावरण वीर्यातराय कर्मका क्षयोपशमका प्रकर्ष होते अंतमूहूर्तमें समस्त श्रुतका अर्थ चिंतवनेकी सामर्थ्य जिनिकै होय ते मनोवली हैं । बहुरि मनोजिव्हा श्रुतज्ञानावरण वीर्यांतरायका क्षयो. पशम अतिशयरूप होते अंतर्मुहूर्तमें सकलश्रुतके उच्चारणविर्षे समर्थ होय निरंतर उच्चस्बरतें उच्चारण करतेंभी खेदरहित कंठस्वर भंग न होय ते वचनवली हैं । बहुरि वीर्यांतरायका क्षयोपशमते असा- | धारण कायका बल प्रगट होते मासिक चातुर्मासिक वार्षिक प्रतिमायोग धारतेंभी खेदरहित होय ते कायवली हैं। बहुरि छठी औषधऋद्धि सो आठ प्रकार है। तहां असाध्य भी रोग होय तौ ।
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