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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ तृतीय अध्याय ॥ पान ३३६ ।।
प्रज्ञा प्रगट भई होय जो चौदहपूर्वके पढनेवालेनें सूक्ष्म तत्त्वका विचार अवगाहनविषै एक पद का तिस निःसंदेह निरूपण करै ताकै प्रज्ञाश्रवणत्वऋद्धि हो है । बहुरि परके उपदेशविनाही अपनी शक्तिके विशेषतैं ज्ञानसंयम के विधानविषै प्रवृत्ति होना सो प्रत्येकबुद्धि ऋद्धि है । बहुरि इंद्रभी आय वाद करै तौ ताकूं निरुत्तर करे तथा वादी के दोष जाकूं प्रतिभासै ताकै वादित्वाद्ध हो है । बहुरि दूजी क्रियाऋद्धि है ताके दोय भेद चारणऋद्धि आकाशगामिनी । तहां चारणऋध्दि अनेक प्रकार है | तहां जलके निवासविषै जलकायके जीवनकूं न विराधते भूमिकीज्यों पग धरते गमन करे ते जलचारण हैं । बहुरि भूमितें व्यारि अंगुल ऊंचे आकाशविषै जंघा उठाय शीघ्र सैकडा कोश गमन करे ते जंघाचारण हैं । ऐसेही तंतुपरि गमन करै पुष्पपरि गमन करे सूधे गमन करै अणिकी शिखापरि गमन करे इत्यादि गमन करै तिनिके जीवनिको बाधा न होय ते चारण ऋध्दिके भेद हैं बहुरि पद्मासनकरि तथा कायोत्सर्ग आसनकरि पगके निक्षेपविना आकाशविषै निराधार गमन करजाय तहां आकाशगामिनी ऋद्धि है | बहुरि तीसरी विक्रिया ऋद्धि सो अनेक प्रकार है । तहा अणुमात्र शरीरकरि ले सौ अणिमा है । तहां कमलके तंतूमात्र छिद्रविषै प्रवेशकरि तहां बैठि चक्रवर्तीकी विभूति र ऐसी सामर्थ्य है । बहुरि मेरुपर्वत भी वडा शरीर रचै सो महिमा है । बहुरि
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