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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। तृतीय अध्याय ॥ पान ३३७ ।।
| भूमिमें बैठे अंगुलीकरि मेरूका शिखर सूर्य आदिकू स्पर्शे सो प्राप्ति है । बहुरि भूमिविर्षे तो जलकीज्यों अरु जलविर्षे भूमिकीज्यों उन्मजन निमजन करै सो प्राकाम्य है । बहुरि तीन लोकका प्रभुत्वपणा रचै सो ईशित्व है । सर्वजीवनिको वशी करणेकी सामर्थ्य सो वशित्व है । बहुरि पर्वतकै बीचि आकाशकीज्यौं गमनागमन करै सो अप्रतिघात है। अदृष्ट होय जाय काहूंको दिखै नांही सो अंतर्धान है। बहुरि एककालमें अनेकरूप करनकी शक्ति सो कामरूपित्व है। इनिकू आदि देकरि अनेक विक्रियाऋद्धि है । बहुरि चौथी तपोऽतिशयऋद्धि है । सो सातप्रकार है । तहां उपवास वेला तेला चौला पचौला तथा पक्ष मास आदि अनशन तपका प्रारंभ करि मरणपर्यंत करें ऐसी सामर्थ्य होय सो उग्रतप है । बहुरि महोपवास करतेभी काय वचन मनका बल वधताही रहै शरीरमें दुर्गंध आदि न आवै सासोच्छास सुगंधही आवै शरीरकी दीप्ति घटै नांही सो दीप्ततप है । बहुरि आहार करै सो तातै कडाहमैं पडा जैसे जल शीघ्र सूकि जाय तैसे सूकै तातें मलरुधिरादिरूप परिणमैं नांही सो तप्ततप है ।। बहुरि सिंहनिक्रीडित आदि महोपवासका आचरणविर्षे तत्पर सो महातप है। बहुरि वात पित्त श्लेष्म सन्निपाततै | उपज्या जो ज्वर कास श्वास अक्षिसूल कोट प्रमेह आदि अनेक प्रकार रोग तिनिकरि संतापरूप
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