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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ तृतीय अध्याय ॥ पान ३४२ ॥ आगें पूछे है, कर्मभूमि कहा है ? ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं
॥ भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः॥ ३७॥ याका अर्थ- भरतक्षेत्र पांच ऐरावतक्षेत्र पांच विदेह पांच मेरु संबंधी पांच ऐसे पंदरें कर्मभूमि हैं । तहां विदेहके कहनैतें देवकुरु उत्तरकुरुभी तिस क्षेत्रमें हैं । ताका प्रसंगके निषेधकै अर्थि तिनि विनां ऐसे कया है । जाते वे दोऊ उत्तमभोगभूमि हैं । हैमवत जघन्यभोगभूमि है । हरिक्षेत्र मध्यभोगभूमि है। रम्यक मध्यभोगभूमि है। हैरण्यवत जघन्यभोगभूमि है । बहुरि अंतर्दीपकुंभी भोगभूमिही कहिये है । इहां पूछे है, कर्मभूमिपणा काहेरौं कह्या है? ताका समाधान, कर्मभूमि | है सो शुभ अशुभ कर्मके आधार क्षेत्र है। तहां फेरी पूछ है कर्मका आश्रय तौ तीनही | लोकका क्षेत्र है । ताका समाधान, जो, याहीत तहां अतिशयकरि कर्मका आश्रय जानीये है । तहां सातवै नरक जाय, ताका कारण अशुभ कर्म इनि भरतादिक्षेत्रनिविर्षेही उपजाईये है। | तथा सर्वार्थसिद्धि आदिका गमनका कारण शुभकर्मभी इनिही क्षेत्रनिवि उपजाईये है । बहुरि |
खेती आदि छह प्रकारके कर्मभी इनिही क्षेत्रनिविर्षे आरंभ है । तातें इनिकर्मभूमि कहिये है । । अन्य जे भोगभूमि तिनिविर्षे दशप्रकारके कल्पवृक्षनिकरि कल्पित भोगका अनुभवन है । तातें
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