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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकुता ॥ तृतीय अध्याय ॥ पान ३३४ ॥ योजन तातें बाह्यतें आया जो बहुयोजनतें रसका स्वाद ताके जाननेकी सामर्थ्य सो रसनेंद्रिय ज्ञानलब्धि है। ऐसेंही स्पर्शन इंद्रिय तथा प्राणइंद्रिय चक्षुइंद्रिय श्रोत्रंद्रिय इनिके विषयक्षेत्रतें बाह्यतें आया जो गंध स्पर्श वर्ण शब्द ताके जाननेकी सामर्थ्य हो है । ते पांच ए भये ॥ बहुरि महारोहिणी आदि विद्या तीनवार आय कहै जो मानें अंगीकार करौ। कैसी है ते? अपने अपने रूपकी सामर्थ्य प्रगट करनेका कथनविर्षे प्रवीण है। भावार्थ- ऐसें कहै, जो, थे कहो सोही करां ऐसी विद्यादेवतानिकरि जिनिका चारित्र चलै नांही ऐसै दशपूर्वके धारकनिकै दशपूर्वित्व ऋद्धि हो है । बहुरि संपूर्णश्रुतकेवलीकै होय सो चतुर्दशपूर्वित्व है । बहुरि अंतरिक्ष भौम अंग स्वर व्यंजन लक्षण छिन्न स्वप्न ए आठ निमित्तज्ञान हैं। ते जिनिकै होय तिनि• अष्टांगमहानिमित्त कहिये । तहां चंद्रमा सूर्य ग्रह नक्षत्र ज्योतिषीनिका उदय अस्त आदिकरि अतीतअनागत फलका कहनां सो अंतरिक्ष है। बहुरि पृथिवीकी कठिणता छिद्रमयता सचिक्कणता रूक्षता आदि देशनितें दिशाविर्षे सूत आदिका स्थापनकरि हानिवृद्धि जय पराजय आदिका जाननां, तथा भूमिमें स्थापे जे सुवर्णरजतादि तिनिका बतावना सो भौमनिमित्त ज्ञान है । बहुरि पुरुषके अंगोपांगके देखनेते तथा स्पर्शन आदिकतें निकालके सुख दुःख आदिका जाननां सो अंगनि
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