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सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २८५॥ है सादि संबंधभी है । तहां कार्यकारणका अनादिसंतानकी अपेक्षा तौ अनादिसंबंधरूप है। बहुरि विशेषकी अपेक्षा सादिसंबंध है । सो बीजवृक्षकीज्यों जानने । जैसें औदारिक वैक्रियिक आहारक जीवकै कदाचित् होय है, तैसें तैजसकार्मण नांही हैं। ये नित्यसंबंधरूप हैं । संसारके क्षयपर्यंत संबंध रहै है । जिनिके मतमें शरीर अनादिसंबंधही है तथा सादिसंबंही है ऐसा पक्षपात है तिनिकै अनादिसंबंध है। तहां अंत नाहीं। तब मुक्त आत्माका अभावका प्रसंग भया । बहरि सादिसंबंध होतें शरीर नवीन भये । पहली आत्मा शुद्ध ठहन्या; तब नवीन शरीरका धारण काहेतें भया ? ऐसे दोष आवै है ॥ आगें पूछे है, ए तैजस कार्मण शरीर कोईक प्राणीकै होय है कि अविशेष है? ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं
॥सर्वस्य ॥४२॥ याका अर्थ- ए दोऊ शरीर सर्व संसारी जीवनिकै हो हैं ॥ इहां सर्व शद्ध निरवशेषवाची है । समस्त संसारी जीवनिकै तैजस कार्मण दोऊ शरीर हैं ॥
आगें, ते औदारिकादि ५ शरीर सर्वसंसारी जीवनिकै अविशेषकरि होय हैं, तहां सर्व एकही काल होय हैं ऐसा प्रसंग होते जे शरीर एकजीवकै एककाल संभवै तिनिके दिखावनेके अर्थि सूत्र कहै हैं
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