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सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २९० ॥ दोऊ रीतिकरि इसकै व्याघात कहिये रुकनां सो नाही तातें अव्याघाति कहिये । इस आहारकशरीरकरि अन्य रुकै नांही तथा अन्यकरि यहुभी रुकै नांही । बहुरि च शब्द है सो समुच्चयकै अर्थि है । कदाकाल तो लब्धिविशेषका सद्भाव जनावनेकै अर्थि हो है । कदाकाल सूक्ष्मपदार्थका निर्णय करावने कू होय है । तहां संयमके रक्षाकै अर्थि है ऐसा प्रयोजन पहले कह्या । ताका समुच्चय चशब्द करै है । बहुरि जिस काल आहारकशरीर प्रवर्तनेका मुनिके अवसर है तिस काल मुनि प्रमादसहित होय है । तातें प्रमत्तसंयतहीकै यह होय है ऐसा कह्या है । इहां क्रियारूप प्रवर्ते ताकू प्रमाद कहै है । ऐसा मति जानूं, जो, अविरतकीज्यौं प्रमाद होय है। एवकारतें यह नियम कीया है, जो, प्रमत्तसंयमी मुनिकै होय है , अन्यकै नांही होय है । एसे मति जानु, जो, प्रमत्तसंयमी मुनिके आहारकही होय है औदारिक नांही होय है । औदारिक तौ हैही ॥ ऐसें चौदह सूत्रनिकरि पांच शरीरनिका निरूपण कीया ॥
इहां विशेष- केई अन्यवादी तौ कार्मणशरीर नांही मानै हैं । कहै हैं, कर्म आत्माहीका अदृष्ट नामा गुण है, ताका शुभाशुभ फल है । सो यहु माननां अयुक्त है । द्रव्यादृष्ट तौ पौद्गलिक कार्मण है । ताकै निमित्ततें भावादृष्ट जीवका गुण है । बहुरि केई अन्यमती कहै हैं भावकर्मही
ఆండడంతం
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