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॥ सर्वार्थासद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । द्वितीय अध्याय ॥ पान २९२ ॥ मोहनामा कर्मकी प्रकृति नोकषाय ताका भेद जे नपुंसकवेद ताका उदय बहुरि अशुभ नामा कर्मका उदयतें स्त्रीभी नांही पुरुषभी नांही ऐसे नपुंसक होय हैं ते नारक । बहुरि संमूर्छन नपुंसकही होय हैं । ऐसा नियम जाननां । तहां स्त्रीपुरुषसंबंधी मनोज्ञ शढ़ गंध रूप रस स्पर्शका संबंधके निमित्तते होय । ऐसें तिनिके क्योभी सखकी मात्रा नांही है।
आगें पूछे है, जो ऐसा नियम है तो अर्थतें ऐसा आया जो, कहे जे नारक संमूर्छन तिनितें अवशेष रहै, ते तीनूं वेदसहित हैं, यातें जहां नपुंसकलिंगका अत्यंतनिषेध है ताकी प्रतिपत्तिकै अर्थि सूत्र कहै हैं॥
॥न देवाः॥५१॥ याका अर्थ- देव हैं ते नपुंसकलिंगी नाही हैं ॥ स्त्रीसंबंधी तथा पुरुषसंबंधी जो उत्कृष्ट सुख है, शुभगति नामा कर्मका उदयतें भया ऐसा, सो देव अनुभवै हैं भोगवै हैं । यातें तिनिविर्षे नपुंसक नाही हैं ॥ आगें पू0 है, अन्य जीव रहे तिनिके केते वेद हैं ? ऐसे पूछ सूत्र कहै हैं--
॥शेषास्त्रिवेदाः ॥५२॥ याका अर्थ-- नारक संमूर्छन देव इनि सिवाय अवशेष रहे जे गर्भज तिर्यंच तथा |
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