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॥ सर्वार्थासद्धि वचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ तृतीय अध्याय ॥ पान ३२२ ॥ | के प्रतिषेध होय । तहां कहिये अनंतर सूत्रतें पश्चिमकू गई नदीनिकाही ग्रहण होय है । तातें गंगासिंवादिका ग्रहण यक्त है। यहां पर है कि, गंगादिकांही ग्रहण होऊ। ताकू कहिये, ऐसें कहै पूर्वकं गई तिनिहीका ग्रहण आवै है। तातें सर्वही ग्रहणके आथे गंगा
गंगासिंध्वादिका ग्रहण किया है । बहुरि नदीका ग्रहण है सो दृणां दूणांका संबंधके अर्थि है। गंगा चौदा हजार नदीनिकरि परिवारित है। तैसेही सिंधूभी चौदा हजार नदीनिकरि परिवारित है। ऐसें अगली अगली नदी क्षेत्र क्षेत्र प्रति विदेहतांई दणी दणी जाननी । तातें परै आधि आधि घटती जाननी ॥
आगैं, जे क्षेत्र कह्या तिनिकी चौडाई जाननेकै अर्थि सूत्र कहै है॥ भरतः षड्विंशतिपञ्चयोजनशतविस्तारः षट् चैकोनविंशतिभागा योजनस्य ॥ २४ ॥
याका अर्थ- भरतक्षेत्र है सो पांचसै छवीस योजन छह कलाकै विस्तार है। इहां कला कही सो एक योजनके उगणीस भाग करिये तामें छह भाग लीजिये ऐसा अर्थ है ॥ आगें, अगिले क्षेत्रनिका तथा कुलाचलनिका विस्तार जनावने के अर्थि सूत्र कहै हैं--
॥ तद्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षा विदेहान्ताः ॥ २५॥ याका अर्थ-- तिस भरतक्षेत्रतें कुलाचल तथा क्षेत्र दूणां दूणां विस्ताररूप हैं। ते विदेह |
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