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सर्वार्थसिद्धिवचनका पंडित जयचंदजीकृता । द्वितीय अध्याय ।। पान २९५ ॥
चरमशरीरी संसारका जिनिकै अंत भया ऐसे तद्भवमोक्षगामी हैं ऐसा अर्थ भया || बहुरि असंख्येय कहिये संख्यातें रहित उपमाप्रमाण जे पत्यादिक तिनिकरि जान्या जाय ऐसे असंख्यात वर्षका जिनका आयु ऐसे उत्तरकुरु आदि भोगभूमिविषै उपजै मनुष्यतिर्यंच ऐसें ए सर्व अनपयुक हैं । विष शस्त्र आदिक बाह्यकारण तिनिके वश घटिजाय ताक अपवर्त्य कहिये । इनिका आयु
कारण घटे नांही ऐसा नियम है । अन्यका नियम नांही । इहां चरमदेहका उत्तम विशेषण है। सो उत्कृष्टपणा अर्थ है, अन्य अर्थ नांही है । केई चरमदेहा ऐसाही पाठ पढ़ें हैं ।।
इहां विशेष जो, चरमश का उत्तमविशेषण है सो उत्कृष्टवाची है । तहां तत्त्वार्थ वार्तिक में ऐसें कहा है, जो, चक्रवर्त्यादिका ग्रहण है । इहां कोई कहै, अंतका चक्रवर्ती वम्हदत्त तथा अंतका वासुदेव श्रीकृष्ण इत्यादिकका आयु अपवर्तन हुवा सो इहां अव्याप्ति भई । ताका समाधान, जो, चरमशब्दका उत्तम विशेषण है । तातें चरमशरीरी तद्भवमोक्षगामी होय तिनिका शरीरका उत्तम विशेषण है । तातें दोष नांही । इहां तर्क, जो, काल आये विनां तौ मरण होय ही ताका समाधान, जैसें आमका फल पालमैं दीये शीघ्र पकै है, तैसें कारण वश आयु यथा ताकी उदीरणां होय पहलैही मरण होय जाय है, ऐसें जाननां । बहुरि जैसें चतुर वैद्य
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