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ఆవకులందరకుంకుంభందండకందుకుందరకు
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचदंजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय । पान २९४ ॥ नामविर्षे रूढीही प्रधान है। ऐसै ये तीन वेद शेष जे गर्भज तिनिकै होय हैं । इनिकी भाव अनुभवकी अपेक्षा ऐसे कहै है । स्त्रीका तौ अंगारेकी अग्नि चिमक्याही करै तैसे है । बहुरि पुरुषका तृष्णाकी अमि जैसे चिमकै तो बहुत परंतु अल्पकालमें बुझि जाय तैसें है । बहुरि नपुंसककै इंटनिका कजावाकी अमि जैसे प्रजल्याही करै, बुझे नाही, तैसें है ॥
आगें, जो ए जन्म योनि शरीर लिंगके संबंधकरि सहित जे देवादिक प्राणी ते विचित्र पुण्यपापके वशीभूत च्यारी गतिविर्षे शरीरनिकू धारते संते यथाकाल आयूकू पूर्णकरि अन्यशरीरकू धारै हैं कि विना आयु पूर्ण कीयाभी अन्यशरीरकू धारे हैं ? ऐसे पूछै उत्तर कहै हैं--
॥ औपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ॥ ५३ ॥ याका अर्थ- औपपादिक कहिये देव नारकी बहुरि चरमोत्तमदेह कहिये चरम शरीर जिनकै उत्तम देह बहुरि असंख्यातवर्षका जिनिका आयु ऐसै भोगभूमियां ए सर्व अनपवायु कहिये पूर्ण आयुकरि मरै हैं । इनिका आयु छिदै नांही । औपपादिक तौ देवनारक पूर्वं कहे तेही । बहुरि चरम शब्द है सो अंतका वाची है । याका विशेषण उत्तम कहिये उत्कृष्ट है । ऐसा चरम उत्तम देह जिनिकै होय ते चरमोत्तमदेह कहिये । ऐसें कहतें जिनकै तिसही जन्मते निर्वाण होना है ऐसे
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