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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । तृतीय अध्याय ॥पान ३०६॥
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अशुभविक्रियारूपही परिणमै । बहुरि आप तो जाणे मै सुखका कारण उपजाऊं हूं । परंतु तहां दुःखके कारणही उपजै । ऐसें ए भाव नीचे नीचै अशुभते अशुभ अधिके अधिक जानने ॥
आगें पूछ है, इनि नारकी जीवनिकै दुःख है, सो शीतउष्णजनितही है, कि अन्यप्रकारभी है ? ऐसे पूछे सूत्र कहै हैं- .
॥परस्परोदीरितदुःखाः ॥ ४॥ याका अर्थ-- नारकजीव परस्पर आपसमें उपजाया है दुःख ज्यां ऐसे हैं । इहां पूछे है, कि परस्पर उपजाया दुःख कैसे है ? तहां कहिये है, नारकीनिकै भवप्रत्ययनामा अवधि हो है ताकू मिथ्यात्वके उदयतें विभंगभी कहिये । इसतें दुःखके कारणनिकू दूरिहीते जाणे हैं । बहुरि निकटते परस्पर देखने कोप प्रज्वल है। बहुरि पूर्वभवका जातिस्मरण होय, तातें तीववैर यादि आवै है । जैसे श्वानके अरु स्यालकै परस्पर वैरका संबंध है, तैसे अपने परके परस्पर घातविर्षे | प्रवर्ते हैं । बहुरि आपही विक्रियाकरि तरवारि कुहाडी फरसी भिंड माल शक्ति तोमर सेल लोहके । घन इत्यादिक शस्त्रनिकरि बहुरि अपने हाथ पग दांतनिकरि छेदनां भेदनां छोलनां काटनां इत्यादिक क्रियाकरि परस्पर अतितीव्र दुःख उपजावे हैं ।।
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