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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। तृतीय अध्याय ॥ पान ३०७ ॥ ___ आगें, कहा एतावत् ही दुःखकी उत्पत्ति के कारण तथा प्रकार हैं औरभी कछु है ? ऐसे पूछ सूत्र कहै हैं--
॥सलिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक्चतुर्थ्याः ॥५॥ ___ याका अर्थ- क्लेशपरिणामसहित जे असुरकुमारके देव ते उपजावै है दुःख जिनिकू ऐसे नारकी जीव तीसरे नरकपर्यंत हैं ॥ देवगति नामकर्मका भेद जो असुरत्वसंवर्तन ताके उदयतें परकू दुःख देवै ते असुर कहिये । पूर्वजन्मविर्षे इनि देवनिनें ऐसाही अतितीव्र संक्लेश परिणामकरि पापकर्म उपाा है। ताके उदयतें निरंतर संक्लेशसहित असुर हो हैं । तिनिमें केई अंब अंबरीष आदि | जातिके असुर हैं, ते नारकीनिकू दुःख उपजावै हैं । सर्वही असुर दुःख नांही उपजावे हैं । बहुरि इनि असरनिका गमनकी मर्यादा दिखावने “प्राक चताः " ऐसा वचन है। ऊपरकी तीन पृथिवीविर्षे असुर बाधा करै हैं। आगै चौथी पांचई छठी सातईविर्षे इनिका गमन नांही । इहां कोई पूछे, ए देव इनि नारकीनिकू दुःख दे हैं, सो इनका कहा प्रयोजन है ? । तहां कहिये, जो, ए देव ऐसही पापकर्ममें लीन हैं । जैसे इहां कोई मीडे भैंसे कूकडे तीतर मल इनिळू लडाय कलह देखि हर्ष माने हैं ; तैसें नारकीनिकी कलह दुःख देखि अति हर्ष माने हैं। ए यद्यपि देव
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