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। सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २९७ ॥ | दे है तातें विनां फल नाही । ताकू कहिये, ऐसेंही आयुकर्मभी जीवनमात्र तो फल दीयाही
अफल कैसै ठहया? विशिष्ट फलका देनां दोऊही कर्मनिकै समान भया । तातें यह सिद्धि भई, . जो, कोईकै अल्पमृत्युभी होय है, जेती पूर्वभवविर्षे आयुकर्म की स्थिति बांधी थी ताकी बाह्य विष शस्त्रादिककै निमित्त स्थिति घटिजाय उदीरणां होय तब मरण होय जाय । इहां ऐसाभी | दृष्टान्त है, जैसें जल आदिकतें आला वस्त्र चौडाकरि तापमै सुकावै तब शीघ्र सूकै तैसें भी जाननां ॥ ऐसें दूसरा अध्याय सयाप्त कीया ॥
दोहा- इस दूजे अध्यायमें । जीवतत्त्वका रूप॥
वर्णन है बहुभेदतें । जानूं भव्य अनूप ॥ १॥ सवैया- जीवके स्वतत्त्व भाव लक्षण दृग्बोध धाव भवी सिद्ध आदि भेद कहे विस्तारतूं।
इंद्रियनिका दोय रूप विषयका अपार रूप गतिभेद भिन्न भिन्न गहो इतवारसूं ॥ जन्मयोनि नानाभांति भवमें अनेकजाति देहके विधान जीव लहै जु विकारतूं । वेदका नियम आयु घटै वधै ताकी रीति दूजे अधिकार भाषी मुनीशा विचारमूं ॥ २ ॥ ऐसें तत्त्वार्थका है अधिगम जामैं ऐसा जो दशाध्यायरूप मोक्षशास्र ताकै विर्षे
द्वितीय अध्याय पूर्ण भया.
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