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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचदंजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २९१ ।। | क्रोधादिक आत्माका भाव है, द्रव्यकर्म नाही, सोभी अयुक्त है । जीवकू बंदीखानेज्यों पराधीन करनेवाला पुद्गल पर्यायरूप द्रव्यकर्मभी है । बहुरि केई अन्यमती स्वप्नांमात्र शरीरकू कहे हैं । सोभी अयुक्त है । जो स्वप्नांमात्रही होय, तो जैसे स्वप्नाविषं केई वस्तु देखै, जागै तब कछू दीखै नाही, तैसें यह शरीरभी न दीख्या चाहिये । सो ऐसे है नांही । बहुरि कोई अन्यमती आत्माकै ज्ञानमात्र शरीर मान है, सोभी अयुक्त है । पुद्गलमय शरीरविनां शरीरकै अर आत्माकै भेद कैसे जान्या जाय ? । ज्ञान तो आत्माका धर्म है, तिस स्वरूपतें तो जुदा है नांही । ऐसेंही कोई शरीरकू औरप्रकारभी कहै है । ते इनि पंच शरीरनिमें सर्व अंतर्भूत होय हैं। अन्य कछु है नांही ।।
आगें पूछ है, जो ऐसे शरीरनिकों धारते जे संसारी जीव, तिनिकै गतिप्रति तीनूं वेदही होय हैं, कि किछु वेदनिका नियम है? ऐसे पूछ सूत्र कहै हैं
॥नारकसम्मूर्छिनो नपुंसकानि ॥५०॥ याका अर्थ- नारकी जीव तथा संमूर्छन जीव ये नपुंसकलिंगीही होय हैं ॥ नारकी तो आगे कहसी । जे नरकनिविर्षे उपजै ते नारक हैं । बहुरि संमूर्छन कहिये अवयवनिसहित शरीर जहां तहां उपजनां सो जिनके होय ते संमूर्छन कहिये । बहुरि चारित्र
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