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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २८९ ॥ संबंध करनां सो तैजसभी लब्धिप्रत्यय होय है ऐसा जाननां । इहां विशेष जो, तैजसके दोय भेद कहे एक निःसरणस्वरूप दूसरा अनिःसरणस्वरूप । तहां निःसरणस्वरूप दोय प्रकार, शभ तैजस अशुभतेजस । सो यहु तो लब्धिप्रत्यय कहिये । बहुरि अनिःसरणस्वरूप है सो सर्वसंसारी जीवनिकै पाईये । सो लब्धिप्रत्ययतें भिन्न जननां ॥
आगें, वैक्रियिक पीछे कह्या जो आहारक शरीर, ताका स्वरूपका निर्धार करनेकै अर्थि तथा स्वामी कहनेकै अर्थि सूत्र कहै हैं--
॥शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसँयतस्यैव ॥४९॥ __ याका अर्थ-- शुभ है विशुद्ध है व्याघातरहित है ऐसा आहारकशरीर प्रमत्तसंयमी मुनि केही होय है ॥ इहां शुभ ऐसा नाम तो आहारककाययोग शुभकर्महीका कारण है, ताते है । याकै होते शुभ प्रकृतिही बंध होय है । इहां कारणविर्षे कार्यका उपचार है। जैसे अन्नकू प्राण | कहिये है । बहुरि विशुद्ध ऐसा नाम है सो पुण्यकर्मका उदयहीनै यह होय है, तातें विशुद्ध
कहिये निर्मल बहुरि पापकर्मकरि मिल्या नांही ऐसा निर्दोपकर्म ताका कार्य है, तातें विशुद्ध ऐसा | कहिये है । इहां कारणविर्षे कार्यका उपचार है । जैसें कपासके तारनिकू कपासही कहिये । बहुरि
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