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सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २८६ ॥
॥ तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्दाः ॥४३॥ याका अर्थ- तिनि तैजस कार्मण दोऊनिकू आदिकरि एक जीवकै एककालविणे दोयभी होय, तीनभी होय, च्यारिताई होय ऐसें भाज्यरूप करनां । पांच न होय । यह तत् शब्द है सो प्रकरण जिनका है ऐसे तैजस कार्मणके ग्रहणके अर्थि है । ते हैं आदि जिनिके ते तदादि कहिये । बहुरि भाज्य कहिये विकल्परूप विभागरूप करने । ते कहां ताई ? च्यारितांई करने । तातें ऐसा अर्थ भया, जो, एककाल एकजीवकै कोईकै तौ तैजसकाण दोयही होय, ते तो अंतरालमैं विग्रहगतिमें जानने । बहुरि कोई जीवकै औदारिक तैजस कार्मण ए तीन होय, ते मनुष्यतिर्यचकै जानने । बहुरि कोई जीवकै वैकियिक तैजस कार्मण ए तीन होय, ते देव नारकीनिकै जानने । बहुरि कोई जीवकै औदारिक आहारक तैजस कार्मण ए च्यारि होय, ते प्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनिके जानने । ऐसै भाज्यरूप जानने ॥ आगें, फेरि तिनहीवि विशेषकी प्रतिपत्तिकै अर्थि सूत्र कहै हैं
॥ निरुपभोगमन्त्यम् ॥४४॥ याका अर्थ- अंतका कार्मण शरीर उपभोगरहित है ॥ अंतविणे होय ताळू अंत्य कहिये ।
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