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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान २२१ ॥
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तब वाद जीति मतकी प्रभावना करै तो उचितही है । विनासामग्री वाद करै अरु हारै तौ स्वमतका विध्वंसही होय । ताते यह निश्चय जानूं, जो , वाद एकांततें तौ तत्त्वनिर्णयकू कारण नाही, हारजीतिही मुख्यता है । बहुरि वीतरागकथा है सोही तत्त्वनिर्णयकू कारण है ॥
ऐसें इस प्रथम अध्यायविर्षे ज्ञानका बहुरि दर्शनका तौ स्वरूप वर्णन कीया । बहुरि नयनिका लक्षण कह्या । बहुरि ज्ञानका प्रमाणपणां कह्या ॥ दोहा---- दर्शनबोध यथार्थता । नयलक्षण बणवाय ॥
ज्ञान पंचकै मानता । कही आदि अध्याय ॥ १॥ सवईया तेईसा-जे पढि हैं अधिकार पहै नर ते चढि हैं निजरूप रमंता ।
जे कढि हैं मुख यामय वाक्य सु चढि हैं सब ऊपरि संता ॥ जे करि हैं निति पूजन भव्य सुपुण्य लहै परलोक गमंता ।
जे परि हैं थुति गाय सुपाय निबोध फुरै तिनिकू जु अनंता ॥१॥ ऐसे तत्वास्थका है अधिगम जातें ऐसा जो मोक्षशास्त्र ताविर्षे प्रथम अध्याय संपूर्ण भया ।
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