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सर्वार्थसिद्धिवचनका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय || पान २७३ ।।
॥ एकसमयाऽविग्रहा ॥ २९ ॥
याका अर्थ - अविग्रहगति है सो एक है समय है काल जाका ऐसी है | एक है समय जाकै ताकूं एकसमया कहिये । नांही विद्यमान है विग्रह जाकै ताकूं अविग्रहा कहिये । ऐसे गतिसहित जे जीवपुद्गल तिनिकी गति अव्याघात कहिये रुकनां मोडा लेना तिनिविनां एकसमयकालमात्र है । याहीं ऋजुगति कहिये है सो क्षेत्र अपेक्षा लोकके अंततांई है । अधोलोकतें लगाय ऊर्ध्वलोकपर्यंत लोकका अंत चौदह राजू है । सो जीव पुद्गल सुधा गमन करे तो एक समय में चौदह राजू पहुंचे ऐसा भावार्थ जानना ॥
आगैं, अनादिकर्मबंधका संतानविषै मिथ्यादर्शन आदि कारणके वश कर्मनिकं ग्रहण करता जो यहु जीव सो विग्रहगतिविषैभी आहारकहीका प्रसंग आवै है । तातें तिसका नियमकै अर्थ सूत्र कहै हैं॥ एकं द्वौ त्रीन् वाऽनाहारकः ॥ ३० ॥
याका अर्थ - विग्रहगतिविषै यह जीव एकसमय अथवा दोय समय तथा तीन समय अनाहारक है, नोकवर्गणाका आहार नांही है ॥ इहां समयका तौ अधिकार संबंध कर लेना ।
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