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॥ सर्वार्थासद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । द्वितीय अध्याय ॥ पान २७२ ॥
| समय विग्रह है । चौथे समयमैं नांही । इहां सूत्रमें चशब्द है सो संसारीकी गति विग्रहसहितभी है विग्रहरहितभी है ऐसा समुच्चयके अर्थि है ॥ इहां विशेष, जो, गति कही तिनकी संज्ञा आगमविर्षे ऐसी है इषुगति, पाणिमुक्त, लांगलिका, गोमूत्रिका । तहां इषुगति तो विग्रहरहित है । ताका दृष्टांत जैसे इषु कहिये तीर चालै सो सूधा ठिकाणे पहुचे तैसें इषुगति है । याका काल एकसमयही है । सो संसारीनिकैभी हो है । बहुरि मुक्तजीवकैभी हो है । बहुरि पाणिमुक्तवि एक मोडा हो है । याका काल दोय समय है। तहां जैसे पाणि कहिये हाथ ताविर्षे जलादिक द्रव्य होय ताकू क्षेपिये तब एक मोडा ले, सो यहु संसारीकैही होय है । बहुरि लांगली गति है ताविर्षे दोय मोडा ले है । याका काल तीन समय है । जैसे लांगल नाम हलका है ताकै दोय मोडा होय है यहुभी संसारीकैही है । बहुरि गोमूत्रिका गतिका काल च्यारि समय हैं ताविर्षे तीन मोडा ले है । चौथे समय निष्कुटक्षेत्रवि पहुंचे है । जैसे गऊ मूतता चल्या जाय तब मूतविर्षे केई मोडा होय हैं सो इहां उपमामात्र है । तिनकू वहुही कहिये तातें तीनही मोडा हैं । यहुभी संसारीकैही होय है ॥
आगै पूछे है, विग्रहवती गतिका तौ कालका नियम कह्या बहुरि अविग्रहवतीका कालनियम केता है? ऐसे पूछे सूत्र कहै हैं
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