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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थासद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । द्वितीय अध्याय ॥ पान २७२ ॥ | समय विग्रह है । चौथे समयमैं नांही । इहां सूत्रमें चशब्द है सो संसारीकी गति विग्रहसहितभी है विग्रहरहितभी है ऐसा समुच्चयके अर्थि है ॥ इहां विशेष, जो, गति कही तिनकी संज्ञा आगमविर्षे ऐसी है इषुगति, पाणिमुक्त, लांगलिका, गोमूत्रिका । तहां इषुगति तो विग्रहरहित है । ताका दृष्टांत जैसे इषु कहिये तीर चालै सो सूधा ठिकाणे पहुचे तैसें इषुगति है । याका काल एकसमयही है । सो संसारीनिकैभी हो है । बहुरि मुक्तजीवकैभी हो है । बहुरि पाणिमुक्तवि एक मोडा हो है । याका काल दोय समय है। तहां जैसे पाणि कहिये हाथ ताविर्षे जलादिक द्रव्य होय ताकू क्षेपिये तब एक मोडा ले, सो यहु संसारीकैही होय है । बहुरि लांगली गति है ताविर्षे दोय मोडा ले है । याका काल तीन समय है । जैसे लांगल नाम हलका है ताकै दोय मोडा होय है यहुभी संसारीकैही है । बहुरि गोमूत्रिका गतिका काल च्यारि समय हैं ताविर्षे तीन मोडा ले है । चौथे समय निष्कुटक्षेत्रवि पहुंचे है । जैसे गऊ मूतता चल्या जाय तब मूतविर्षे केई मोडा होय हैं सो इहां उपमामात्र है । तिनकू वहुही कहिये तातें तीनही मोडा हैं । यहुभी संसारीकैही होय है ॥ आगै पूछे है, विग्रहवती गतिका तौ कालका नियम कह्या बहुरि अविग्रहवतीका कालनियम केता है? ऐसे पूछे सूत्र कहै हैं Pareriewsroorksperitsartasvertesertprerever For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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